13 नवंबर 1777 ईस्वी में जन्म लेने वाले बाबू कुंवर सिंह बिहार के भोजपुर जिले के रहने वाले थे, जिनके पिता का नाम बाबू साहेबजादा सिंह था और उनकी माता का नाम पंचरत्न कुंवर था. बाबू कुंवर सिंह एक ऐसे वीर माने जाते थे जिन्होने बचपन से ही वीर बनने की शिक्षा ली थी और बचपन में खिलौने से खेलने के बजाय बंदूक चलाना, घोड़े दौड़ाना और भाला चलाने का शौक उन्हें था. सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि वीर कुंवर सिंह ने 80 साल की उम्र में भी अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए थे और अंग्रेज बाबू कुंवर सिंह के डर से थरथर कांपते थे, जब कुंवर सिंह 80 वर्ष के थे तब उन्होंने भारत को आजादी दिलाने में और अंग्रेजों को खदेड़ने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
कहा जाता है कि वीर बाबू कुंवर सिंह ने पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार में जुलाई 1857 को दानापुर में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था, जिसका नेतृत्व वीर कुंवर सिंह ने सम्भाला था. बाबू कुंवर सिंह के बलिदान से आज बिहार और भोजपुर का नाम गौरव से लिया जाता है. यही वजह है कि भोजपुर और आरा जिला आज भी बाबू कुंवर सिंह के नाम से जाना जाता है.
1857 से लेकर अगले 1 साल तक उन्होंने 15 से ज्यादा लड़ाइयां लड़ी और जीत भी हासिल की. यही वजह है कि वह भोजपुरी शेर के साथ-साथ भारत के शेर भी कहलाते हैं, जो आज करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बन चुके हैं. सन 1857 की लड़ाई की जब भी चर्चा की जाती है तो उसमें सबसे पहले बहादुर शेर बाबू कुंवर सिंह की चर्चा होती है. यह वो दौर था जब कुंवर बाबू ने तात्या तोपे, नवाब अली बहादुर, नवाब तफज्जुल हुसैन और कई फिरंगीयो से लोहा लिया था. अपने 80 साल की उम्र में कुंवर बाबू इस तरीके से तलवार चलाते थे कि अंग्रेज भी उनके आगे घुटने टेक देते थे. साल 1858 में उन्होंने आजमगढ़ पर जब काफी लड़ाई के बाद कब्जा किया तो यह इतिहास बन गया, जिस की गाथा आज किताबों में भी उपलब्ध है.
कहा जाता है कि अंग्रेजो के खिलाफ लगातार जीत दर्ज करने वाले वीर कुंवर बाबू के पास युद्ध के लिए अलग-अलग नीति हुआ करती थी और वह हर युद्ध में अलग- अलग नीति को अपनाते थे, जिससे वह अंग्रेजों को परास्त करने में सफल भी होते थे. यह वही वीर कुंवर सिंह थे जिन्हें एक बार गंगा नदी पार करने के दौरान डग्लस के सैनिकों की गोलीबारी का सामना करना पड़ा था. गोली उनके कलाई पर लगी थी जिसके बाद संक्रमण बाकी के शरीर में न फैले इसके लिए उन्होंने अपने हाथ काट कर नदी को समर्पित कर दिया था.
कहा जाता है कि जब जगदीशपुर पर वीर कुंवर बाबू ने कब्जा किया था तब खुशी के जगह हर जगह मातम पसरा हुआ था, क्योंकि इसके 3 दिन बाद 26 अप्रैल 1858 को वीर कुंवर सिंह ने वीरगति प्राप्त कर ली.