किस्सा- कहानी
गुलाम भारत के तीन ऐसे भाई जिन्होंने दमनकारी अंग्रेजी शासन को दिया था मुंहतोड़ जवाब
एक वक्त था जब भारत कई दशकों तक अंग्रेजी हुकूमत के कब्जे में रहा और उस वक्त अच्छे से अच्छे नेता भी अंग्रेज के सामने मुंह खोलने से डरते थे, पर जिन लोगों ने भी अंग्रेज के सामने डटकर लड़ने का साहस रखा आज वह कई दशकों बाद भी हर भारतीय के दिल में हमेशा के लिए जीवित हैं. उसी में एक नाम चाफेकर बंधु का आता है जिनके अंदर दमनकारी अंग्रेजी शासन के सामने डटकर खड़ा रहने की साहस थी. भारत माता के चरणों में जीवन समर्पित करने वालों में महाराष्ट्र के तीन सगे भाइयों का नाम शामिल हैं जिन्हें चाफेकर बंधु के नाम से जाना जाता है. इन्होंने हमारे देश को अंग्रेजी हुकूमत से छुटकारा दिलाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. आज हम आपको बताएंगे किस तरह ये तीनो क्रांतिकारी बने और उनका योगदान किस प्रकार रहा.
मशहूर क्रांतिकारी चाफेकर बंधु का परिचय
चाफेकर बंधु में सबसे बड़े दामोदर चाफेकर का जन्म 25 जून 1869 को पुणे के ग्राम चिंचवड की एक संपन्न परिवार में हुआ. इनके दो छोटे भाइयों में बालकृष्ण चाफेकर का जन्म 1873 एवं वासुदेव चाफेकर का जन्म 1880 में हुआ. इन भाइयों का बचपन बड़े ही सुख चैन और मस्ती भरे अंदाज में गुजरा. महर्षि पटवर्धन और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक उनके आदर्श थे . उन दिनों अंग्रेजी क्रूरता ने चाफेकर बंधु की खून में विद्रोह की ज्वाला भड़का दी. 1857 के असफल विद्रोह की आग की दबी चिंगारी भी सुलगना चाहती थी जिसे चाफेकर बंधु ने अपने सर्वोच्च बलिदान से प्रचंड कर दिया. बाल गंगाधर तिलक की प्रेरणा से उन्होंने युवकों का एक संगठन इकट्ठा किया जिसका नाम व्यायाम मंडल था. इसका लक्ष्य अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय जनता में जागरूकता और क्रांतिकारी संघर्ष के विषय में सफल योजना बनाना था. इसके बाद तीनों भाइयों ने क्रांति का मार्ग अपना लिया. दामोदर चाफेकर ने हीं तत्कालीन मुंबई में रानी विक्टोरिया के पुतले पर गले में जुते की माला पहना कर अपना रोष प्रकट किया था. 1894 में चाफेकर बंधु ने पुणे में प्रतिवर्ष शिवाजी एवं गणपति समारोह का आयोजन भी प्रारंभ किया था. दामोदर और उनके भाई बालकिशन चाफेकर ने एक बार अंग्रेजी अधिकारी रैंड के बग्गी के पीछे चढ़कर उन्हें गोली मार दी. उधर बालकृष्ण ने भी आयरस्ट पर गोली चला दी, जिसकी मौके पर ही मौत हो गई. इसके बाद चाफेकर बंधु की जय जयकार होने लगी. इसके बाद दामोदर को मुंबई में गिरफ्तार कर लिया गया. बालकृष्ण पुलिस के हाथ ना लगे. दामोदर को फांसी की सजा सुना दी गई. कारागृह में तिलक जी ने उनसे भेंट की और उन्हें गीता प्रदान की. उधर बालकृष्ण ने जब यह सुना कि उनके सभी संबंधियों को सताया जा रहा है तो वह स्वयं पुलिस थाने में उपस्थित हो गए. अदालत द्रारा बालकृष्ण के साथ ही उनके साथी रानाडे को फांसी की सजा सुनाई गई. वही वासुदेव को 8 मई को और बालकृष्ण को 12 मई 1899 को यरवदा कारागृह में फांसी दी गई.