निस्वार्थ भाव से जनसेवा के लिए पूरी दुनिया में मशहूर माने जाने वाली मदर टेरेसा का जीवन जितना रोचक था उतना विवादों से भरा था. आइए आज हम आपको बताएंगे कि जन सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाली मदर टेरेसा पर आखिर क्यों लगते थे धर्म परिवर्तन कराने के आरोप.
मदर टेरेसा बचपन से ही रोमन कैथोलिक धर्म में आस्था रखती थी, जो बड़ी होकर एक मिशनरी बनना चाहती थी. मदर टेरेसा को दुनिया भर में बहुत से सम्मानों से नवाजा गया जिनमें 1989 में मिला नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल है. 26 अगस्त 1910 को अल्बेनियाई परिवार में मदर टेरेसा का जन्म हुआ था. 12 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना मन पूरी तरह से बना लिया कि एक दिन वह मिशनरी बनेंगी. साल 1928 में जब वह 18 साल की थी तो उन्होंने मिशनरी बनने के लक्ष्य के साथ अपने घर को छोड़ दिया और वहां से वह आयरलैंड चली गई जहां उन्होंने इंग्लिश सीखी थी जिसके बाद वह भारत आ गई.
भारत आने के बाद साल 1950 में मदर टेरेसा मिशनरी ऑफ चैरिटी का निर्माण करने में जुट गई जब यह शुरू हुआ तो इसमें केवल 12 ही लोग काम करते थे लेकिन धीरे-धीरे यह इतना बढ़ गया कि आज हजारों की संख्या में लोग काम करते हैं.
इस बीच यह बात कहा जाता है कि मदर टेरेसा भले ही लोगों की सेवा जरूर करती थी लेकिन इसके बदले में वह गरीबों को बहला-फुसलाकर उनको इसाई बनाया करती थी. इसके अलावा लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि मदर टेरेसा का एजेंडा सिर्फ और सिर्फ ईसाईयत फैलाना ही था. मदर टेरेसा का एक ईसाई एजेंडा था. वह गरीबी उन्मूलन के लिए नहीं था, पैसा तो बहुत था लेकिन कोलकाता में एक आधुनिक अस्पताल का निर्माण नहीं किया गया. यह बात भी सामने आती है कि ईसाई मिशनरी जब दर्द से कराहते थे तो लोगों का इलाज करने के बजाय मदर टेरेसा उन्हें जीसस के पाठ पढ़ाने लगती थी और सारा कारण जीसस पर छोड़ देती थी जिसके लिए उनकी आज भी आलोचना की जाती है.
आपको बता दें कि साल 1962 में मदर टेरेसा को पद्मश्री, 1980 में भारत रत्न से सम्मानित किया जा चुका है. इसके अलावा अमेरिकन सरकार ने साल 1985 में मेडल ऑफ फ्रीडम अवार्ड भी दिया था. साल 1989 में दिल और किडनी की बीमारी से मदर टेरेसा को जब हार्ट अटैक आया तो धीरे-धीरे उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और साल 1997 में उन्होंने मिशनरी ऑफ चैरिटी के पद से त्यागपत्र दे दिया था जिसके बाद 5 सितंबर 1997 को भारत के कोलकाता शहर में मदर टेरेसा का निधन हो गया.